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गीतांजलि Geetanjali (Hindi)

By: Contributor(s): Material type: TextTextLanguage: HIN Publication details: Radhakrishna Prakashan Private Limited 2016 New DelhiEdition: 8th edDescription: 163pISBN:
  • 9788183612661
Subject(s): DDC classification:
  • 891.433 THA
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Book Book NIMA Knowledge Centre 5th Floor Reading Zone General 891.433 THA (Browse shelf(Opens below)) Checked out 16/07/2025 M0032927
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मेरा माथा नत कर दो तुम
विविध वासनाएँ हैं मेरी प्रिय प्राणों से भी
अनजानों से भी करवाया है परिचय मेरा तुमने
मेरी रक्षा करो विपत्ति में, यह मेरी प्रार्थना नहीं है
प्रेम, प्राण, गीत, गन्ध, आभा और पुलक में
आओ नव-नव रूपों में तुम प्राणों में
लगी हवा यों मन्द-मधुर...अमल-धवल है;
कहाँ आलोक, कहाँ आलोक ?
जानें, कैसे गाते हो तुम गीत, गुणी
छिपे आड़ में रह जाने से यो अब नहीं चलेगा
दर्शन यदि पाऊं न तुम्हारा, है प्रभु ! मैं इस जीवन में
लखता हूँ विरह तुम्हारा राजित अहरह भुवन-भुवन में
जागे, हे प्रभु ! नेत्र तुम्हारे हित ये
धन-जन से परिपूर्ण आज हूँ मैं
यही तुम्हारा प्रेम, यही है ह्रदय- हरण !
मैं तो यहाँ रहा हूँ जाने को ही गीत तुम्हारा
करो, भंग मेरा कर दो
मेरे मन को इनने फिर से घेर लिया है
मुझसे मिलने हेतु, न जानें, आते हो तुम कब से
यहाँ गीत जो गाने को मैं आया
जो खो जाय उसे पाने की आशा में
मलिन वसन यह त्याग डालना होगा अब तो
जगी पुलक है मेरे मन में, नयनो में धनधोर
आज रखो मत, हे पभु ! अपना दायॉं हाथ छिपाए
मिला जगत-आनन्द-यज्ञ में मुझको है आमंत्रण
आलोकित करते प्रकाश को आलोको के आलोक पधारे
आसन के नीचे की मिटटी में मैं ढँका रहूँगा
रूप- जलधि में दी हैं मैंने डुबकी
यही हमारे घर में उसने डेरा अपना डाला है
निभृत प्राण के देवता, जँहा अकेले जागते
किस प्रकाश से जला प्राण का दीप...आते हो तुम?
' तुम मेरे अपने हो, मेरे ही समीप हो'
लो उतार तुम, लो उतार निज पदतल पर मुझको
अपने सिंहासन से नीचे उतरे
अपना लो इस बार मुझे, है नाथ ! मुझे अपना लो
सूख जाय जब जीवन, करुणा-धारा बन तुम आना
अब नीरव कर डालो अपने, आहे ! मुखर इस कवि को
निद्रामग्न विश्व जब सारा, अन्धकार जब नभ में
पगध्वनि उसकी सुनी नहीं क्या तुमने
मणि मेने हार, मान अब ली है
एक-एक कर तार अपने पुराने खोलो
मैं आया बहार जाता गीत तुम्हारा ही
प्रेम वहन कर सकूँ तुम्हारा, ऐसी शक्ति नहीं है
सुन्दर ! आज पधारे थे तुम परतः
जब था मेरा खेल तुम्हारे साथ
तरी खोल दी उसने, यह लो, कौन तुम्हारा बोझ उठावे?
मौन भांग कर बात न अपनी कहो अगर तो
जब-जब करना चाहा प्रकाश मैंने
सबसे आड़ किए रख सकूँ तुम्हे मै
बजती तव बाँसुरी ब्रज मे, वह क्या कोई सहज गान है?
तुम्हे दया कर धोना होगा जीवन मेरा
सभा भंग जब होगी तब क्या शेष गान मैं गए जाऊंगा?
सुचिर जन्म की वेदना, चिर जीवन की साधना
गाने को जब कहते हो तुम मुझको
धावे मेरे पूर्ण प्रेम जैसे, प्रभु ! पास तुम्हारे
पथ-कर वे वसूलते है ले-लेकर नाम तुम्हारा
प्राण जागते मेरे इस चाँदनी रात में
बात थी की हम दोनों एक तरी पर ही चले चलेंगे
अपने निर्जन घर की तोड़ रूकावट इस विशाल भव में
अब न अकेला इस प्रकार मैं विचरूँगा
चाहता हूँ मैं तुम्हे चिर, चाहता हूँ मैं तुम्हे
न तो मेरा प्रेम बीरु ही है, या न हीनबल ही है
और सहो मेरा प्रहार तुम, मेरा भी सहन करो
अच्छा किया, निठुर ! यह तुमने
तुम्हे देवता जान दूर मैं खड़ा रहा
करते हो जो काम उसी में क्या न लगाओगे मुझको भी?
जहाँ विश्व के साथ योग में विचरण तुम करते हो
स्वयं खिलते सुमन सरिस तुम गान
अपना मुँह मैं किए तुम्हारी ओर रहूँ चिर
अहे देवता मेरे ! भरकर देह-प्राण ये
साध यही हैं मेरी-हो जीवन-क्रम में
टोह तुम्हारी लेने हेतु अकेला मैं बहार निकला
सबसे अधम, दीन जन सबसे रहे जहाँ
और न अपने सिर पर अपना बोझा वहन करूँगा
मैं तुम सबकी ओर निहार रहा हूँ
छोड़ो मत, कसकर गहे रहो, अजी! तुम्हारी होगी जय
आज हृदाय हैं भरा हुआ मेरा
गर्व किए मैं लेता हूँ वह नाम नहीं
अपनी ही इच्छा से कृपया स्वयं रूप धर करके लधु-सा
ध्वज फहराए नभ-भेदी रथ पर
भजन, पूजन, साधन, आराधन साब कुछ रहे पड़े
सिमा-बिच, असीम ! छोड़ते हो तुम अपना सुर
मुझ पर तर आनन्द, इसी से आए हो तुम निचे
नहीं तुम्हारे हेतु मान का आसन
त्याग दिए मेरे गायन ने अपने सारे अलंकार हैं
निन्दा, दुःख, अनादर में चाहे जितने आघात लगे
उलझ गई हैं मोठे-पतले दो तारो में, जिससे
गाने लायक हुआ न कोई गान
मुझमे होगी व्यक्त तुम्हारी लीला
तुम्हरे ऊपरी मन से अपने गायन से
तुम्हे ढूँढना शेष नं होगा मेरा
मुझे बाँध देते हो जब आगे-पीछे
तुम्हे रहूँ, प्रभु ! अपना सतत बनाए
प्रेम-दूत को भेजोगे कब तुम, हे नाथ!
जननि ! तुम्हारे कारण-चरण मैंने निरखे आज
मेर नयन लुभाने को तुम आई
आ बैठी थी वह तो मेरे पास,न तब मैं जागा
आज तुम्हारी सोने की थाली में
रही नहीं अब बेला,अब तो छाया घरणी पर उतरी
दुः स्वपन कहाँ से आ करके जीवन में करते गड़बड़ हैं!
आज द्वार पर जाग्रत है ऋतुराज
आओ, सजल जल्द ! आओ
आया है आषाढ़ पुनः नभ में छाए
नदी पार का यह आषाढ़-प्रभात-काल
आषाढ़ी सन्ध्या घिर आई, दिन अब बीत गया
आज गहन सावन-धन- प्रेरित...तुम आ पहुँचे हो
जमे मेघ-पर-मेघ, अँधेरा घिरता आता है
आह वारि लो, झरता झर-झर भरे हुए मेघो से है
व्योमतल में खिल गया अलोक-शतदल
खो गया आज है मन मेरा मेघो में
आज निखरता हु मैं बहुविधि मानव-बीच रूप पावस के
धनखेतो में धुप-छाँव में लुका-छुपी का खेला
बाढ़ आज आनन्द-सिन्धु से ही आ पहुंचा हैं, जी!
आज झंडी की रात हुआ आगमन तुम्हारा है
ज्ञात मुझे है, ज्ञात मुझे, किस आदिकाल से
नाथ ! जगाया आज मुझे जब, वापस मत चल देना तुम तब
कास-गुच्छ बाँधा हैं हमने,गुँथी हैं शेफाली-माला
आज शरद में कौन अतिथि यह प्राण-द्वार-पर आया?
जीवन में जो रहा सदा आभास में
जीवन में जो पूजाएँ थी, पूरी हुईं नहीं
बैठा हु मैं ताकि प्रेम के हाथो पकड़ा जाऊँ
अपने नाम तले रखता हूँ जिसे ढँके
मुझे बुला लो, मुझे बुला लो, मुझे बुला लो
तोड़ मुझे लो,देर नहीं हो
जहाँ लूट हो रही तुम्हारी भव में
मरण जिस दिन दिवसांत में द्वार तुम्हारे आ पहुँचेगा
कौन कहा करता ही मरण जब घर लेगा
अरी, मेरे इस जीवन की शेष परिपूर्णता
जो-कुछ तुमने मन-भर दिया हैं
मन को, अपनी काया को मिटाडालना चाह रहा मैं
जाने के दिन ऐसा हो कि बात जाऊँ
जिस दिन नाम मिटा दोगे, हे नाथ!
जड़ी हुईं हैं ह्रदय-बिच जो बाधा
बीत गया यदि दिवस, न गेट पंछी
यात्री हूं मैं तो, जी!
गीत गवाए तुमने मुझसे कितने ही छल से
सोचा करता मैं कि यही है शेष
सेष-बिच (भी) है अशेष यह बात आज मन मे

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